Friday 20 November 2015

19th NOV 2015 WORLD TOILET DAY - (HYGIENE AND SANITATION)

"The 2030 Agenda calls on us to renew our efforts in providing access to adequate sanitation worldwide. We must continue to educate and protect communities at risk, and to change cultural perceptions and long-standing practices that hinder the quest for dignity."
Secretary-General Ban Ki-moon

Toilet Day Inforgraphic
Volunteer sanitation workers inform refugees on use of pit latrines,
South Sudanese Refugee Camp Gambella, Ethiopia.
©UNICEF Ethiopia/2014/Ayene
2.4 billion People do not have adequate sanitation. 1 billion people still defecate in the open. Poor sanitation increases the risk of disease and malnutrition, especially for women and children. Women and girls risk rape and abuse, because they have no toilet that offers privacy.”
This year, World Toilet Day is focusing on the link between sanitation and nutrition, drawing the world’s attention to the importance of toilets in supporting better nutrition and improved health. Lack of access to clean drinking water and sanitation, along with the absence of good hygiene practices, are among the underlying causes of poor nutrition.
The aim of World Toilet Day is to raise awareness about the people in the world who don’t have access to a toilet, despite the fact that it is a human right to have clean water and sanitation.“
On this day people are encouraged to take action and help promote the idea that more needs to be done. You can host an exhibition, write a toilet song, host a dinner or draw a cartoon – anything that shows #wecantwaitany longer and that everyone worldwide must have access to a toilet.

Sustainable Development Goals

Goal 6: Ensure access to water and sanitation for all                                
Clean, accessible water for all is an essential part of the world we want to live in. There is sufficient fresh water on the planet to achieve this. But due to bad economics or poor infrastructure, every year millions of people, most of them children, die from diseases associated with inadequate water supply, sanitation and hygiene.
The initiative builds on the strong commitment already made by UN Member States.  The “Sanitation for All’ Resolution (A/RES/67/291) was adopted by the United Nations General Assembly in July 2013, designating 19 November as World Toilet Day. The Day is coordinated by UN-Water in collaboration with Governments and relevant stakeholders. 
World Toilet Day 2014 logo

hindi.indiawaterportal.org/node/50474

आधुनिक शौचलयों के कारण बिगड़ता पर्यावरण व बढ़ता प्रदूषण

विश्व शौचालय दिवस, 19 नवम्बर 2015 पर विशेष


.मनवजाति तरक्की के साथ-साथ अपने लिये विशेष दिन भी तय कर रही है। अब 19 नवम्बर को ‘विश्व शौचालय’ दिवस है। क्या शौच के बारे में कहना कोई नई बात है? नहीं! परन्तु यदि नई बात है तो शौच और स्वच्छता को लेकर।

क्या कारण है कि जैसे-जैसे जनसंख्या का बढ़ना हुआ वैसे-वैसे शौच और स्वच्छता की समस्या गहराती गई। यहाँ हम उत्तराखण्ड हिमालयी राज्य को लेकर परम्परागत शौचालय से सम्बन्धित कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण के एक अध्ययन में बताया गया है कि 20 लाख वर्ष पहले से ही हिमालय की तलहटी वाले क्षेत्र शिवालिक में कपि मानव थे। वे तन्दुरस्ती के साथ-साथ समझदार भी थे। उनका रहन-सहन समझदारी के अनुरूप था। उनकी शौच जाने की अपनी परम्परा थी। वे इसे कोई परम्परा नहीं मानते थे। वे शौच का निस्तारण अपने दिनचर्या के साथ जोड़ते थे।

जिस कारण उनके आस-पास गन्दगी का कोई जिक्र ही नहीं आता। कह सकते हैं कि उन दिनों जनसंख्या का घनत्त्व इतना कम था कि शौच का निस्तारण प्रकृति के साथ स्वतः ही हो जाता होगा। बताया गया कि डेढ़ लाख वर्ष पहले हिमालय में जलवायु परिवर्तन के कारण भारी प्राकृतिक उथल-पुथल हुई।

हिमालय की ऊँचाई बढ़ने लग गई और हिमालय की तलहटी में मौजूद कपि मानव में शाररिक व मानसिक बदलाव होने लगा। इन्होंने भी अपने कामों में तेजी से विकास किया। गाँव बसने लगे, गाँव की अपनी परम्पराओं का विकास हुआ, नियम-कायदे गड़ने लग गए। इसके अलावा कृषि का भी तेजी से विकास हुआ तो पैदावार की बढ़ोत्तरी के लिये तरह-तरह के प्रयोग हुए।

लोगों ने शौच को जैविक खाद के रूप में देखा तो शौच जाने के कुछ स्थान नियत कर दिये गए। आज भी उन स्थानों के नाम उत्तराखण्ड में मौजूद हैं। उन्हीं स्थानों पर ग्रामीणों की सर्वाधिक काश्त की जमीन है। यही नहीं गाँव में पानी का स्रोत हो ना हो परन्तु ‘‘सेरा नामे तोक’’ में जलस्रोत जरूर होगा।

‘‘सेरा’’ का तात्पर्य उत्तराखण्ड में खेतों से है जहाँ पर सम्पूर्ण गाँव की काश्त की खेती होती है। गाँव में आज जब लोग कहते हैं कि मैं ‘‘पाणी के तरफ या सेरा’’ जा रहा हूँ, समझ लिजिए कि वह लघुशंका जा रहा है। अर्थात लघुशंका की जगह वही खेत हैं जहाँ कृषि कार्य होता हैं। यह रही परम्परा की बात।

ताज्जुब हो कि जैसे-जैसे समाज ने विकास की गति पकड़ी है वैसे-वैसे रहन-सहन के तौर तरीको में भी भारी बदलाव आने लग गया। संयुक्त परिवार एकल होने लग गए। खेतो की मेड़ भी सिकुड़ती चली गई। खेतों में अनाज नही कंकरीट के जंगल उगने लग गए।

लोगों के पास आर्थिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी होने लगने लगी तो वे प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन करने लग गए। पानी की सर्वाधिक आवश्यकता होने लग गई। की उन्हें तो शौचालय के लिये पानी चाहिए, प्रतिदिन नहाने के लिये, कपड़े धोने के लिये, पोंछा लगाने के लिये इत्यादि-इत्यादि के लिये पानी की माँग तेजी से बढ़ने लग गई।

मगर पानी का संरक्षण कैसे हो इस पर हम सोचने के लिये एक कदम भी आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अब हालात इस कदर होने लग गई है कि दिनों दिन लोग अपने-अपने घरों में शौचालय का निर्माण तो करवा रहे हैं परन्तु इसमें एकत्रित होने वाले शौच का निस्तारण कैसे हो इस पर कोई कारगर कदम नहीं उठ पाये।

उत्तराखण्ड हिमालय की बसावट ऐसी है कि जहाँ कहीं भी कोई पानी गिर जाये वह नीचे ही बहकर आता है। सीढ़ीनुमा और 90 डिग्री समकोण में बसे गाँव और उन गाँवों में बन रहे शौचालयों के कारण पहाड़ का भूजल बड़ी मात्रा में प्रदूषण में तब्दिल हो रहा है।

इन पहाड़ी गाँवों में बने शौचालय की बनावट ऐसी है कि जैसे ऊपर वाली सीढ़ी पर शौचालय का गड्ढा बना हुआ है तो उस गड्ढे के भीतर इक्कठा हुआ मल और पानी स्वतः ही निचली वाली सीढ़ी से बाहर निस्तारित हो जाता है या उसी के आस-पास निकलने वाले जलस्रोत के साथ बाहर आ जाता है। ऐसा पहाड़ी ढलानों में बसे गाँवों में कई जगह देखने को मिल जाएगा। क्योंकि पहाड़ी ढलानों पर गाँवों की ही बसासत है।

कुल मिलाकर शौचालय की जरूरत तो है परन्तु शौच का ठीक से निस्तारण हो यह अहम प्रश्न है। अर्थात कह सकते हैं कि शौचालय या स्वच्छता की कोई परम्परा नहीं हो सकती है यह तो दिल का मामला है। मनुष्य ने जिस तरह से अपने को आधुनिक बनाने में महारथ हासिल की है उसी तरह शौचालय और स्वच्छता की तरफ भी आगे बढ़ने की प्रबल आवश्यकता है।

1. पहले-पहल कृषि कार्य और पशुपालन जनसंख्या के समतुल्य था। उस दौरान गाँव के आस-पास कुछ जंगली जानवर थे जो मानव मल का शोधन करते थे और गाँव में पालतू कुत्ते होते थे जो मानव मल का स्वतः ही शोधन करते थे। अब इन पशुओं की संख्या मानव की अपेक्षा एकदम कम हो गई है और वे जंगली जानवर तो यदा-कदा ही दिखाई देते हैं।

2. देश की नामचीन संस्था अर्घ्यम ने एक ऐसा शौचालय को विकसित किया है जिसमें पानी डाला ही नहीं जाता है। इस शौचालय के प्रयोग में मल एक तरफ और मूत्र एक तरफ चला जाता है। मल के पीछे से कोई पानी नहीं डालना पड़ता है। मूत्र जिस तरफ जाएगा उसे भी एकत्रित करने का स्थान बनवाया गया। मूत्र को खेतों में खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है तो मल को भी 30 दिन बाद खाद के ही रूप में प्रयोग किया जाता है। इस ‘‘इकोसेन टॉयलेट’’ के साथ दो गड्ढे बनाए गए हैं। एक जब भर जाता है तो दूसरे को प्रयोग करते हैं। भरे हुए गड्ढे को बन्द करके और 30 दिन बाद खोलकर बिना बदबू के आप निसंकोच खाद के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। इससे दो तरह के फायदे हमारे सामने हैं। एक तो भूजल प्रदूषित नहीं होगा, दूसरा की पानी की फिजूलखर्ची नहीं होगी। यानि कि जिनके पास कृषि कार्य नहीं है वे अपने शौचालय से बनने वाली जैविक खाद को बाजार में बेच सकते है। अर्थात कृषि कार्य करने वालों को तो फायदा है ही साथ में उन लोगों का फायदा भी है जिनके पास कृषि कार्य नहीं है। इस तरह यह ‘‘इकोसेन टॉयलेट’’ को प्रयोग में लाया जा सकता है।

3. उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बताया कि वे 2017 तक चमोली व बागेश्वर को खुला शौच से मुक्त कराएँगे। इसके लिये राज्य सरकार इन दोनों जनपदों के लोगों को नैतिक सहयोग करेगी। ये जनपद खुद के ही संसाधनों से जनपदों के सम्पूर्ण गाँवों को ‘‘टोटल सनिटेशन’’ के अन्तर्गत लाएगी।
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        The World Toilet Organization is a global non-profit organization committed to improving toilet and sanitation conditions worldwide. Wikipedia
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